नई दिल्ली। हिमाचल प्रदेश में जो कुछ हो रहा है, वह बहुत नहीं चौंकाता है। बगावत जाहिर तौर पर हिमाचल कांग्रेस के अंदर से उठी है जिसका पहला शिकार कांग्रेस नेता अभिषेक मनु सिंघवी हुए जो राज्यसभा चुनाव हार गए और अब तपिश मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू तक पहुंच रही है। लेकिन मूल कारण स्थानीय नहीं है। इसका कारण पूरी तरह भाजपा भी नहीं है। वस्तुत: कांग्रेस में पिछले पांच छह वर्षों से जो कुछ हो रहा है, इसका मुख्य कारण है कमजोर केंद्रीय नेतृत्व, संवादहीनता और इकतरफा फैसला।
नहीं सुनी जाती कांग्रेस के नेताओं की बात
लंबे अरसे से कांग्रेस के नेताओं की ओर से इसका संकेत दिया जाता रहा है कि उनकी बात ही नहीं सुनी जाती। बार-बार के आग्रह के बावजूद उन्हें समय तक नहीं दिया जाता है। इसका हश्र असम में दिखा था, जब हिमंत बिस्व सरमा छोड़ गए थे। इकतरफा फैसले का असर पंजाब में दिखा था जब कैप्टन अमरिंदर सिंह ने पार्टी को अलविदा कह दिया था।
देश में दल-बदल का खेल बहुत तेज
आरोप-प्रत्यारोप का बाजार गर्म है। विपक्ष की ओर से भाजपा पर बिहार से लेकर उत्तर प्रदेश और गुजरात से लेकर हिमाचल तक खरीद-फरोख्त का आरोप लगाया जा रहा है। इसका जवाब तो भाजपा दे रही है, लेकिन एक सच्चाई यह है कि हर बड़े चुनाव से पहले कुछ समय तक पूरे देश में दल-बदल का खेल बहुत तेज होता है।
सपा को भी बाय-बाय कर रहे विधायक
राजनीतिक दलों की ओर से जीतने वाले चेहरों की तलाश होती है तो कई नेता भी अपने भविष्य की गोटियां बिठाने में लगे होते हैं। बिहार में नीतीश कुमार के विश्वास प्रस्ताव के समय राजद के तीन विधायक गायब थे तो भाजपा के भी तीन विधायक गैर मौजूद थे। दो दिन पहले समाजवादी पार्टी के कुछ विधायक अखिलेश यादव को बाय-बाय कर भाजपा के साथ हो लिए। गुजरात में दो दिन पहले वरिष्ठ आदिवासी नेता नाराणभाई राठवा दल-बल समेत भाजपा में आ गए।
खरगे का राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा में जाने से इनकार
ध्यान रहे कि गुजरात में आदिवासी समाज मुख्यत: कांग्रेस का वोटर था, लेकिन पिछले विधानसभा चुनाव में आदिवासियों का रुझान भाजपा की ओर रहा तो राठवा के लिए भी बहुत विकल्प नहीं बचा था। लेकिन, गुजरात का ही एक दूसरा पहलू भी है। पोरबंदर से कांग्रेस के वरिष्ठ नेता अर्जुन मोडवाडिया ने तब लिखित रूप में कांग्रेस नेतृत्व को आगाह किया था जब सोनिया गांधी, राहुल गांधी और मल्लिकार्जुन खरगे ने राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा समारोह में जाने से इनकार कर दिया था। जबकि, कांग्रेस के शक्तिमान पूर्व नेता अहमद पटेल के बेटे और बेटी तब से नजरें सख्त किए बैठे हैं जब से पार्टी ने वह सीट समझौते में आम आदमी पार्टी को दे दी।
नेताओं के हितों को संरक्षित नहीं कर पा रही कांग्रेस
कुछ दिन पहले ही मुंबई के युवा कांग्रेस नेता मिलिंद देवड़ा पार्टी छोड़कर शिवसेना में शामिल हो गए थे, क्योंकि पार्टी उनके हितों को संरक्षित नहीं कर पा रही थी। कांग्रेस के वरिष्ठतम नेता एके एंटनी के पुत्र पहले ही भाजपा के साथ आ चुके हैं। मध्य प्रदेश में कमलनाथ और उनके पुत्र के भाजपा में आने की खबरें कुछ दिनों तक सुर्खियों में रहीं। दोनों पिता-पुत्र भी कुछ दिन चुप ही रहे फिर कांग्रेस में ही रहने की घोषणा हुई। राजनीति में इसके गहरे अर्थ होते हैं।
कांग्रेस में नेतृत्व पर सवाल खड़ा होना लाजिमी
चुनाव किसी भी नेता के लिए सबसे सटीक वक्त होता है। यही कारण है कि जहां जीतने की संभावना ज्यादा होती है, जहां सत्ता सुख मिलने की क्षीण सी भी संभावना होती है, उधर का रुख कर लेते हैं। ऐसे समय में राजनीतिक दल भी ज्यादा मंथन नहीं करते। दल यदि सक्रिय नहीं हैं, उसकी निगाहें चौकन्नी नहीं हैं तो नेतृत्व पर सवाल खड़ा होना लाजिमी है। राहुल गांधी पार्टी के विस्तार के लिए एक यात्रा कर चुके हैं और दूसरी पर निकले हुए हैं, लेकिन उन्हें भी समझना होगा कि विस्तार से पहले घर संभालने की कला सीखनी जरूरी है।