राजनीतिक एजेंडे वाला आंदोलन, किसान संगठनों की कुछ मांगे ऐसी जिन्हें बिल्कुल नहीं स्वीकारा जा सकता

न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी वाले कानून समेत कई अव्यावहारिक मांगों को लेकर दिल्ली कूच पर आमादा पंजाब के किसान संगठनों का रवैया एक बार फिर उन दिनों की याद दिलाने वाला है, जब चार साल पहले तीन नए कृषि कानूनों के विरोध में राजधानी को लगभग 13 महीने तक बंधक बनाए रखा गया था। धरना-प्रदर्शन और आंदोलन के बहाने अपने राजनीतिक एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए किसान संगठनों की ओर से बनाए गए माहौल का ही नतीजा था कि केंद्र सरकार को उन तीन कृषि कानूनों को वापस लेना पड़ा था, जिन्हें कृषि और कृषक समुदाय के लिए क्रांतिकारी माना जा रहा था।

उस समय दिल्ली में इस कदर मनमानी का परिचय दिया गया था कि सैकड़ों किसानों ने 26 जनवरी के दिन लालकिले पर धावा बोलकर सारे देश को शर्मसार किया था। तब केंद्र सरकार की किसानों से बातचीत इसलिए विफल रही थी, क्योंकि एक तो किसान संगठन हद दर्जे की नकारात्मकता का परिचय दे रहे थे और दूसरे, कांग्रेस और आम आदमी पार्टी समेत अन्य विपक्षी दल अपने संकीर्ण स्वार्थों के चलते उन्हें केंद्र के खिलाफ अड़ियल रवैया अपनाने के लिए उकसा रहे थे। किसानों के सीमाओं पर डेरा जमा लेने के कारण दिल्ली के लोगों का जीवन दुष्कर हो गया था। इस बार भी किसानों ने यही करने का प्रयास किया।

यह बात अलग है कि पिछले अनुभव से सतर्क केंद्र सरकार ने इस बार उन्हें दिल्ली में घुसने न देकर पंजाब से लगती हरियाणा की सीमा पर ही रोक लिया। इससे गुस्साए किसानों ने हिंसा भी की। केंद्र सरकार ने दिल्ली कूच की किसान संगठनों की घोषणा के बाद से ही अपनी सक्रियता बढ़ा दी थी। कृषि मंत्री अर्जुन मुंडा और खाद्य एवं उपभोक्ता मामलों के मंत्री पीयूष गोयल ने चंडीगढ़ में किसान संगठनों से बातचीत की, लेकिन इसका कोई नतीजा नहीं निकला। बातचीत का यह सिलसिला अभी भी कायम है और सरकार की ओर से यह संकेत भी दिया गया है कि एक समिति बनाकर किसानों की बातों पर गौर किया जा सकता है। इसके बावजूद किसानों ने अपने रवैये से यही प्रदर्शित किया है कि उनकी दिलचस्पी समाधान निकालने में कम, बल्कि आम लोगों को परेशान करके मोदी सरकार को नीचा दिखाने और विरोधी दलों के राजनीतिक हित साधने में अधिक है।

इस बार विरोध प्रदर्शन में पंजाब को छोड़कर अन्य राज्य के संगठनों ने शामिल होने को लेकर उत्साह नहीं दिखाया है। फिर भी वोट बैंक की राजनीति ने कांग्रेस समेत कई विपक्षी दलों को यह अवसर प्रदान कर दिया है कि वे किसानों के साथ नकली हमदर्दी दिखाकर उन्हें अपने पक्ष में मोड़ने की कोशिश कर सकें। देश के समक्ष कोई वैकल्पिक एजेंडा प्रस्तुत करने में नाकाम रही कांग्रेस के नेता राहुल गांधी ने यह घोषणा करने में देर नहीं लगाई कि अगर उनकी पार्टी सत्ता में आई तो एमएसपी की कानूनी गारंटी के साथ स्वामीनाथन समिति की सिफारिशों को पूरी तरह लागू किया जाएगा।

राहुल की यह घोषणा पूरी तरह अव्यावहारिक है। एक तो स्वामीनाथन समिति की रिपोर्ट में यह नहीं लिखा है कि एमएसपी के लिए कोई अधिनियम बनाने की आवश्यकता है और दूसरे, अनेक विशेषज्ञ यह स्पष्ट कर चुके हैं कि ऐसा कोई कदम अर्थव्यवस्था का बेड़ा गर्क कर देगा। किसी भी सरकार के लिए यह संभव नहीं कि वह हर साल केवल 23-24 फसलों के लिए करीब 10 लाख करोड़ रुपये की खरीद की गारंटी दे सके। सरकार का इस साल का पूंजीगत व्यय 11 लाख करोड़ रुपये ही है। राहुल गांधी यह भी भूल चुके हैं कि जिस मनमोहन सिंह सरकार ने स्वामीनाथन समिति का गठन किया था, उसने स्वयं उसकी सिफारिशों को लागू करने से मना कर दिया था।

किसान संगठन एमएसपी पर खरीद की गारंटी के साथ ही पिछले आंदोलन के समय दर्ज मुकदमों की वापसी, बिजली कानून रद करने, दस हजार रुपये मासिक पेंशन, विश्व व्यापार संगठन की सदस्यता छोड़ने, प्रदूषण रोकथाम से संबंधित कानूनों से छूट और मनरेगा के तहत कार्य दिवसों की संख्या दोगुनी करने की मांग कर रहे हैं। उनकी कुछ मांगों को तो स्वीकार किया जा सकता है, लेकिन कुछ को तो बिल्कुल भी नहीं माना जा सकता, क्योंकि वे सिरे से बेतुकी हैं।

इससे इन्कार नहीं कि देश के औसत किसानों की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं, लेकिन यह आश्चर्यजनक है कि जिस राज्य के किसान सबसे अधिक समृद्ध समझे जाते हैं, वहीं के किसान बार-बार आंदोलित क्यों हो रहे हैं? इससे संदेह गहराता है कि उनका एजेंडा राजनीतिक है। पिछली बार किसान संगठनों ने जब दिल्ली की घेरेबंदी की थी, तब भी यह सामने आया था कि देश-विदेश के अनेक संदिग्ध समूहों ने आग में घी डालने का काम किया। एमएसपी का सबसे अधिक लाभ उठाने वालों में पंजाब के किसान ही सबसे आगे हैं। एमएसपी का लाभ पंजाब के आढ़ती भी उठाते हैं। उन्होंने ही कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों को भड़काया था। ये आढ़ती दूसरे राज्यों के किसानों से धान-गेहूं खरीदकर पंजाब में एमएसपी के ऊंचे भावों पर बेच देते हैं।

हालांकि पिछले दस वर्षों में किसानों की हालत में काफी कुछ सुधार आया है, लेकिन सुधार की यह गति और तेज करने की जरूरत है। कृषि क्षेत्र के असंगठित होने के कारण व्यवस्थागत परिवर्तनों की रफ्तार धीमी रहती है। जिन कृषि कानूनों को वापस लेना पड़ा, वे देश में कृषि के ढांचे की तस्वीर बदलने वाले थे। इन कानूनों से निजी क्षेत्र को कृषि में पूंजी लगाने का अवसर मिलता, जिससे किसानों की बेहतरी के नए द्वार खुल जाते। संकीर्ण राजनीतिक कारणों से इस पहल को लेकर किसानों को बरगलाया गया।

उन्हें यह बेजा डर दिखाने की कोशिश की गई कि अगर कारोबारी जगत ने कृषि में प्रवेश किया तो उनका भविष्य खतरे में पड़ जाएगा। यह दृष्टिकोण किसान विरोधी ही है। खुद किसानों को यह समझना होगा कि कृषि की दशा सुधारने के लिए जितने बड़े पैमाने पर निवेश की आवश्यकता है, वह केवल सरकार के वश की बात नहीं। किसानों का सही मायने में भला तब होगा जब कृषि को बाजार की प्रतिस्पर्धा से जोड़ा जाएगा। जैसी मांगों के लिए पंजाब के किसान अभी आंदोलित हैं, उनसे कुछ समूहों और दलों को लाभ भले ही मिल जाए, लेकिन देश के आम किसानों का भविष्य नहीं सुधरने वाला।

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