क्रायोजेनिक की तरह खुद ही संभल जाने का आ गया वक्त, इनके भरोसे रहे तो हो जाएगा बेड़ा गर्क

इंडियन एयरफोर्स फाइटर जेट्स की गंभीर कमी से जूझ रही है. यह बात किसी से छिपी नहीं है. चीन-पाकिस्तान जैसे दुश्मन देशों के घिरे होने की वजह से यह स्थिति किसी भी स्थिति में स्वीकार्य नहीं हैं. खुद भारतीय वायु सेना के चीफ एयर मार्शल एपी सिंह भी गंभीर चिंता जता चुके है. लेकिन, सबसे बड़ा सवाल यह है कि ऐसी स्थिति पैदा कैसे हुई

यह स्वाभाविक है कि लड़ाकू विमानों की कमी कोई एक-दो सालों में नहीं आई है. बीते करीब दो दशक से रक्षा क्षेत्र में इस बात की चर्चा है. वर्ष 2004 में मनमोहन सिंह के नेतृत्व में बनी यूपीए की सरकार में एयरफोर्स के लिए लड़ाकू विमान खरीदने पर चर्चा शुरू हुई. तत्कालीन रक्षा मंत्री एके एंटनी और एयर फोर्स अधिकारियों ने इसको लेकर काफी माथा पच्ची की. कई देशों से टेंडर मंगाए गए लेकिन, यूपीए सरकार में एक के बाद एक भ्रष्टाचार के मामले सामने के बाद सरकार यह फैसला नहीं कर पाई. उसे डर था कि कहीं इस सौदे में भी भ्रष्टाचार न हो जाए. इस कारण खरीद को टाल दिया गया. इस बीच 2014 में पीएम नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा की सरकार आ गई. उस समय तक इमर्जेंसी जैसी स्थिति पैदा हो गई थी. फिर सरकार ने फ्रांस से सीधे 36 रॉफेल लड़ाकू विमान खरीद लिए.

देसी फाइटर जेट
साथ ही सरकार देसी फाइटर जेट्स बनाने के विकल्प पर भी तेजी से बढ़ने लगी. इस कड़ी में एचएएल द्वारा डेवलप तेजस विमान को प्राथमिकता दी गई. तेजस एक चौथी पीढ़ी का लड़ाकू विमान है. फिर एचएएल ने 4.5+ पीढ़ी का तेजस MK1A फाइटर जेट बना लिया. एयरफोर्स ने एचएएल को 83 तेजस MK1A विमानों के ऑर्डर भी दे दिए. लेकिन, एचएएल तेज गति से इन विमानों का प्रोडक्शन करने की स्थिति में नहीं है. इसमें एचएएल का इंफ्रास्ट्रक्चर तो एक बड़ी बाधा है. लेकिन सबसे बड़ी बाधा इन विमानों में लगने वाला अमेरिकी कंपनी जीई के इंजन हैं.

जीई के इंजन का मसला
एचएएल ने 2021 में अमेरिकी कंपनी से 99 इंजनों के लिए करार किया था. लेकिन, इन इंजनों की आपूर्ति में जीई ने बड़ी देरी कर दी. 2023 से ये इंजन डिलिवर होने थे लेकिन, उसने अब जाकर इसकी डिलिवरी शुरू की है. चंद रोज पहले की एचएएल को पहला इंडन मिला है. इस कारण इस पूरे प्रोजेक्ट में अच्छी खासी देरी हो चुकी है. बीते दिनों एयर फोर्स चीफ एयर चीफ मार्शल एपी सिंह ने इसको लेकर अपनी चिंता जताई थी.

खैर, ये तो हुई पूरी कहानी. अब आते हैं असल मुद्दे पर. दरअसल, दुनिया के सभी बड़े देश किसी अन्य देश को टेक्नोलॉजी की दुनिया में तेजी से बढ़ना स्वीकार नहीं करते हैं. इसमें अमेरिका का नाम सबसे आगे है. इन देशों को लगता है कि तीसरी दुनिया के देश खासकर भारत अगर टेक्नोलॉजी की दुनिया में तेजी से आगे बढ़ेगा तो उनके लिए एक बड़ा बाजार खत्म हो जाएगा. इसी कारण वे इनमें अड़ंगा लगाते हैं.

क्रायोजेनिक इंजन का मसला
कुछ ऐसा ही मसला क्रायोजेनिक इंजन का था. यह कहानी 1990 के दशक से शुरू होती है, जब भारत अपने अंतरिक्ष कार्यक्रम को मजबूत करने के लिए भूस्थैतिक उपग्रह प्रक्षेपण यान (जीएसएलवी) विकसित कर रहा था. जीएसएलवी के लिए क्रायोजेनिक इंजन की जरूरत थी, जो अत्यधिक ठंडे तरल ईंधन (हाइड्रोजन और ऑक्सीजन) का उपयोग करता है और भारी उपग्रहों को भूस्थैतिक कक्षा में पहुंचाने में सक्षम होता है. उस समय यह तकनीक केवल कुछ देशों- अमेरिका, रूस, फ्रांस और जापान के पास थी.

विवाद की शुरुआत 1991 में हुई जब भारत ने रूस के साथ एक समझौता किया. रूस ने भारत को सात क्रायोजेनिक इंजन आपूर्ति करने और इसकी तकनीक हस्तांतरित करने का वादा किया था. यह सौदा 23 करोड़ डॉलर का था. लेकिन अमेरिका ने इसे मिसाइल प्रौद्योगिकी नियंत्रण व्यवस्था (MTCR) का उल्लंघन बताते हुए विरोध किया. अमेरिका का दावा था कि यह तकनीक सैन्य उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल हो सकती है, हालांकि भारत ने स्पष्ट किया कि इसका उपयोग केवल शांतिपूर्ण अंतरिक्ष मिशनों के लिए होगा. अमेरिकी दबाव में रूस ने 1993 में तकनीक हस्तांतरण से इनकार कर दिया और केवल चार तैयार इंजन देने की पेशकश की. इससे भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम को बड़ा झटका लगा, क्योंकि तैयार इंजन खरीदने से दीर्घकालिक आत्मनिर्भरता हासिल नहीं हो सकती थी.

इसरो ने किया कमाल
इस संकट ने भारत को स्वदेशी क्रायोजेनिक इंजन विकसित करने के लिए प्रेरित किया. भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने 1990 के दशक के मध्य में इस चुनौती को स्वीकार किया. क्रायोजेनिक तकनीक बेहद जटिल होती है, क्योंकि इसमें -253 डिग्री सेल्सियस (हाइड्रोजन) और -183 डिग्री सेल्सियस (ऑक्सीजन) जैसे अत्यधिक ठंडे तापमान पर काम करना पड़ता है. इसके लिए विशेष मिश्र धातुओं, सटीक इंजीनियरिंग और उन्नत परीक्षण सुविधाओं की जरूरत थी. शुरुआत में इसरो को कई असफलताओं का सामना करना पड़ा. उदाहरण के लिए 1990 के दशक में प्रारंभिक परीक्षणों में इंजन के पुर्जे विफल हो गए, और तकनीकी जानकारी की कमी ने प्रक्रिया को और जटिल बना दिया.

फिर भी इसरो के वैज्ञानिकों ने हार नहीं मानी. उन्होंने तमिलनाडु के महेंद्र गिरि में एक अत्याधुनिक परीक्षण केंद्र स्थापित किया और धीरे-धीरे तकनीक को समझने और विकसित करने में जुट गए. लगभग दो दशकों की मेहनत के बाद 5 जनवरी 2014 को भारत ने अपने पहले स्वदेशी क्रायोजेनिक इंजन के साथ जीएसएलवी-डी5 का सफल प्रक्षेपण किया. इस मिशन ने जीसैट-14 उपग्रह को कक्षा में स्थापित किया और भारत को क्रायोजेनिक क्लब में शामिल कर दिया. इस इंजन को बाद में और उन्नत बनाया गया जैसे कि CE-20, जो लॉन्च व्हीकल मार्क-3 (LVM3) के लिए तैयार किया गया. CE-20 ने 200 किलोन्यूटन का थ्रस्ट प्रदान किया और गगनयान जैसे महत्वाकांक्षी मिशनों के लिए भी योग्य साबित हुआ.

इस उपलब्धि ने न केवल भारत को अंतरिक्ष क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनाया बल्कि यह भी साबित किया कि दृढ़ संकल्प और स्वदेशी इनोवेशन किसी भी बाधा को पार कर सकते हैं.

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