रतन टाटा का अंतिम संस्कार इस तरह किया गया, जबकि पारसी धर्म में अंतिम संस्कार का है ऐसा नियम

भारत के प्रतिष्ठित बिजनेसमैन और करोड़ों लोगों के लिए प्रेरणा रहे रतन टाटा का आज मुंबई के वर्ली श्मशान घाट में पूरे राजकीय सम्मान के साथ अंतिम संस्कार किया गया। रतन टाटा लंबे समय से बीमार चल रहे थे। उन्होंने 86 साल की उम्र में दुनिया को अलविदा कहा। रतन टाटा के निधन के बाद उनके अंतिम संस्कार को लेकर चर्चाएं तेज हो गई थीं कि उनका अंतिम संस्कार कैसे किया जाएगा। कई लोगों का अनुमान था कि रतन टाटा पारसी समुदाय से सम्बध रखते थे, इसलिए उनका अंतिम संस्कार पारसी रीति-रिवाजों से ही किया जाएगा लेकिन रतन टाटा के परिवार ने इलेक्ट्रिक अग्निदाह से उनका अंतिम संस्कार करने का निर्णय लिया। दूसरी तरफ बात करें, पारसी धर्म में अंतिम संस्कार के नियम की, तो यह बहुत ही अलग है।

रतन टाटा का अंतिम संस्कार विद्युत शवदाह से हुआ

रतन टाटा के अंतिम संस्कार के तरीके पर चर्चा की जा रही थी। आखिरकार रतन टाटा के परिवार के सदस्यों ने रतन टाटा के अंतिम संस्कार को लेकर फैसला ले लिया, जिसके बाद रतन टाटा के पार्थिव शरीर को वर्ली स्थित इलेक्ट्रिक अग्निदाह ले जाया गया। यहां कई जानी-मानी हस्तियों ने रतन टाटा को श्रद्धाजंलि दी। रतन टाटा की मृत्यु के बाद से ही कयास लगाए जा रहे थे कि रतन टाटा पारसी धर्म से सम्बध रखते हैं, इसलिए रतन टाटा का अंतिम संस्कार टॉवर ऑफ साइलेंस में किया जा सकता है लेकिन उनके परिवार ने पारसी धर्म के अंतिम संस्कार के इस तरीके का अनुसरण नहीं किया।

क्या है पारसी धर्म में अंतिम संस्कार का नियम

पारसी धर्म में अंतिम संस्कार से जुड़े नियम में मृतक शरीर को आसमान को सौंप दिया जाता है। पारसी समुदाय का मानना है कि प्रकृति ने हमारे शरीर की रचना की है, इसलिए इस शरीर को वापस से प्रकृति को सौंप देना चाहिए। पारसी समुदाय के लोग पर्यावरण प्रेमी माने जाते हैं। उनका मानना है कि मरने के बाद भी मनुष्य का शरीर प्रकृति के काम आ सकता है, इसलिए वे शव को गिद्धों के हवाले कर देते हैं, जिसे टॉवर ऑफ साइलेंस का नाम दिया गया है।

क्या है पारसी धर्म में ‘टॉवर ऑफ साइलेंस’ का मतलब

पारसी समुदाय में दखमा यानी ‘टावर ऑफ साइलेंस’ में अंतिम संस्कार की प्रक्रिया को दोखमेनाशिनी कहा जाता है। दखमा एक गोलाकार बनावट होती है जहा शव को रखा जाता है। इसमें शव को खुले में, सूरज की रोशनी में रखा जाता है ताकि गिद्ध उसे खा सकें। पारसी मान्यता के अनुसार, शव को जलाना या दफनाना प्रकृति को दूषित करना माना जाता है।

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