हरियाणा विधानसभा चुनावों में ऐन वोटिंग से पहले क्यों अहम हो गए दलित नेता?

हरियाणा में विधानसभा चुनावों के लिए कल शनिवार को वोटिंग होनी है. चुनाव प्रचार के अंतिम दौर में कांग्रेस और बीजेपी में सीधी टक्कर हो गई है. इनेलो-जेजेपी और आम आदमी पार्टी के तेवर नरम पड़ गए हैं. इसके चलते एक-एक वोट महत्वपूर्ण हो गए हैं. पर पिछले सात दिनों में अचानक हरियाणा की राजनीति दलितों पर केंद्रित हो गई. भारतीय जनता पार्टी के बड़े से बड़े नेता जिसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृहमंत्री अमित शाह आदि भी शामिल हैं, के भाषणों में दलितों के हित की बात कुछ ज्यादा ही होने लगी. कांग्रेस में कुमारी सैलजा को मनाने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगाया गया है. सोनिया गांधी तक से कुमारी सैलजा की मुलाकात को इसी संदर्भ में देखा जा रहा है. अशोक तंवर की घर वापसी भी कांग्रेस ने इसलिए ही कराई है. सवाल उठता है कि अचानक बीजेपी और कांग्रेस का फोकस दलितों पर क्यों हो गया?

1-वोटिंग से ऐन पहले सैलजा और सोनिया गांधी की मुलाकात क्या एक स्ट्रेटजी है

हरियाणा विधानसभा चुनावों में अपने साथियों को टिकट न दिलवा पाने और हुड्डा समर्थकों को अधिक टिकट दिए जाने से कुछ दिनों पहले कुमारी सैलजा पार्टी से नाराज हो गईं थी.उन्होंने करीब 2 हफ्ते चुनाव प्रचार से दूरी बनाकर अपनी नाराजगी स्पष्ट कर दी थी. फिलहाल राहुल गांधी उन्हें मनाकर वापस लाए. एक सभा के दौरान उन्होंने भूपेंद्र सिंह हुड्डा और कुमारी सैलजा के हाथों को जबरन मिलवाया भी पर शायद केवल हाथ ही मिले दिल नहीं मिल सके. यही कारण है कि कुमारी सैलजा की मुलाकात सोनिया गांधी से भी करवाई गई है. पर राजनीतिक विश्वेषक इसे कांग्रेस की रणनीति भी मानते हैं.

दरअसल हुड्डा के सीएम बनने की उम्मीद में जाट कांग्रेस को वोट दे रहे हैं. दूसरी तरफ अगर ये भ्रम फैलता है कि सैलजा भी सीएम बनाईं जा सकती हैं तो जाहिर है कि पार्टी को दलितों का वोट भी मिल सकता है. क्योंकि जिस तरह सैलजा बार-बार सीएम पद के लिए अपनी इच्छाएं जाहिर कर रही हैं इस तरह कभी कांग्रेस में नहीं होता रहा है. दूसरी बात सैलजा भी जानती हैं कि कांग्रेस में जिताऊ कैंडिडेट हुड्डा के साथ जितने हैं उतने उनके पास नहीं है. चुनाव जीतने के लिए केवल पार्टी का सिंबल ही जरूरी नहीं होता बल्कि साम-दाम-दंड-भेद सब लगाकर चुनाव जीते जाते हैं. हुड्डा इसमें माहिर हैं.

जिस तरह सोनिया ने सैलजा से मुलाकात की है उससे यह स्पष्ट लगता है कि कांग्रेस बड़े लेवल पर स्ट्रेटेजिक तरीके से चुनाव लड़ रही है. अशोक तंवर को बहुत शांति से पार्टी में लाया जाना इसका सबूत है. दलितों के बीच यह संदेश देने की कोशिश है कि पार्टी में दलित नेताओं का सम्मान हो रहा है. दलितों को यह संदेश दिया गया है कि संभव हुआ तो सैलजा सीएम भी बन सकती हैं.

2-मिर्चपुर और गोहाना के मुद्दे को जिंदा किया गया 

भारतीय जनता पार्टी के नेताओं ने इन चुनावों में भरसक कोशिश की है कि दलितों को यह बात समझा सकें कि कांग्रेस राज में उनके साथ बहुत अत्याचार हुए थे. दरअसल गोहाना में 2005 में और मिर्चपुर में 2010 में दलित-जाट संघर्ष हुआ था. दोनों ही घटनाओं में दलितों के घर जलाए गए थे. मिर्चपुर में एक बच्ची और एक बुजुर्ग को जिंदा जला दिया गया.बीजेपी नेताओं पीएम नरेंद्र मोदी, गृहमंत्री अमित शाह, मुख्यमंत्री नायब सैनी, पूर्व मुख्यमंत्री मनोहर लाल आदि ने बार-बार अपनी चुनाव रैलियों में इस घटना का जिक्र किया. पर लगता नहीं है कि बीजेपी अपने मकसद में कामयाब हो सकी है. कांग्रेस ने लोकसभा चुनावों के पहले से आरक्षण बचाओ और संविधान बचाओ का मुद्दा हरियाणा चुनावों में भी काम करता नजर आ रहा है. दूसरे बीजेपी के पास कोई दलित लोकप्रिय चेहरा नहीं है जिसके नाम पर हरियाणा के दलितों को बीजेपी के पक्ष में एकजुट किया जा सके. अशोक तंवर को पार्टी ने स्टार प्रचारक बनाया था पर उनका कांग्रेस में जाना भी पार्टी को भारी पड़ने वाला है.दूसरी बात यह भी है कि अगर वोटिंग के 2 दिन पहले कोई नेता अचानक बीजेपी छोड़कर कांग्रेस में आ रहा है तो इसका सीधा मतलब है कि जिस पार्टी को छोड़कर आ रहा है उसकी स्थिति जनता के बीच कमजोर होगी.    

3-मायावती और आसपा का कितना जोर होगा

हरियाणा चुनाव में दलित वोट की राजनीति केंद्र में है वह इस तरह समझ सकते हैं कि केवल कांग्रेस और बीएसपी ही नहीं इनेलो और जेजेपी भी दलित वोटों को लेकर आशान्वित हैं. इनेलो ने अपना पार्टनर बीएसपी को और जेजेपी ने आजाद समाज पार्टी को बनाया है. इस तरह दलितों के वोट लेने के लिए बीजेपी और कांग्रेस ही नहीं जेजेपी और इनेलो भी सक्रिय हैं. राज्य की विधानसभा की कुल 90 सीटों में 17 विधानसभा सीटें एससी के लिए आरक्षित हैं, लेकिन वे 47 सीटें भी अहम हो जाती हैं, जहां दलित समुदाय की आबादी 20% से ज्यादा है. बीएसपी इनमें से 37 सीटों पर चुनाव लड़ रही, जबकि बाकी पर सहयोगी आईएनएलडी चुनाव लड़ रही है. वहीं, दूसरे गठबंधन में जेजेपी के खाते में 70 सीटें आई हैं और चंद्रशेखर की आजाद समाज पार्टी 20 सीटों पर चुनावी मैदान में हैं.

बीएसपी प्रमुख मायावती ने हरियाणा में चुनाव रैली करके यह जता दिया है कि वो यहां के चुनावों में हल्के में नहीं ले रही हैं.इसी साल हुए लोकसभा चुनाव में राज्य में 4% से कम वोट पाने वाली बीएसपी के तेवर को हल्के में नहीं लेना चाहिए.

राज्य में आईएनएलडी, जेजेपी, बीएसपी और एएसपी मुकाबले को चार कोणीय बनाने की की कोशिश तो बहुत हुई पर लड़ाई बीजेपी और कांग्रेस के बीच ही नजर आ रही है. पर बीएसपी के साइलेंट वोटर्स कितनी मात्रा में मायावती का साथ देते हैं यह देखने वाली बात होगी.

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