म्यांमार हिंदुत्व को मॉडल की तरह क्यों देख रहा? दूसरे पड़ोसी भी इसी राह पर चले, भारत को क्या करना चाहिए?

नेपीडॉ: म्यांमार में जब आजादी की लड़ाई लड़ी जा रही थी, उस समय ब्रिटिश औपनिवेशिक अधिकारियों ने भारत से अप्रवासियों को बसाकर इसे नियंत्रित करने की कोशिश की थी। इस नीति से उस दौर के बर्मा में एक नया अभिजात वर्ग बना था, जिसने भूमि, पूंजी और प्रशासन पर नियंत्रण किया। इसके साथ ही एक नस्लीय कटुता की भी नींव पड़ी जो आज भी इस देश में गहरी है। म्यांमार की आजादी के आंदोलन का एक मशहूर नारा था- ‘बर्मी होने का मतलब बौद्ध होना है।’ म्यांमार के बौद्ध राष्ट्रवादी नेताओं ने उस समय ‘कलार’ को औपनिवेशिक ताकतों से भी ज्यादा खतरनाक कहा था। कलार का अर्थ होता है काला, जिसे भारतीयों और मुसलमानों के लिए अपमानजनक रूप में इस्तेमाल किया जाता था। उस समय हजारों भारतीयों को म्यांमार से भागना पड़ा था। नियति का पहिया अपने साथ बहुत बदलाव लाता है, इस बार बौद्ध राष्ट्रवाद के झंडाबरदार मदद के लिए भारत की तरफ देख रहे हैं।

भारत की तरफ देख रही म्यांमार सेना

म्यांमार में इस समय शासन करने वाली सैन्य जुंटा सबसे बड़े विद्रोह का सामना कर रहा है। विद्रोहियों के बढ़ते सफल अभियान के बीच म्यांमार की सेना नई दिल्ली की तरफ मदद के लिए देख रही है। पिछले सप्ताह जब सैन्य खुफिया निदेशालय के मेजर-जनरल चरणजीत सिंह देवगन के नेतृत्व में भारतीय सेना का प्रतिनिधिमंडल पहुंचा तो म्यांमार की सेना ने लाल कालीन बिछाकर उसका स्वागत किया। नई दिल्ली के लिए म्यांमार की सेना एक स्वाभाविक भागीदार की तरह लगती है। इस बीच एक दिलचस्प बदलाव यह आया है कि म्यांमार सेना का लंबे समय तक सहयोगी रहे चीन ने विद्रोहियों के साथ संबंधों को गहरा किया है।

बौद्ध धार्मिक नेताओं का बढ़ता हस्तक्षेप

2021 में सत्ता पर कब्जा करने के बाद से ही म्यांमार सेना ने खुद को इस्लाम और पश्चिम के हमले के खिलाफ बौद्ध राज्य के रक्षक के रूप में पेश किया। तख्तापलट क समर्थन करने वाले दक्षिणपंथी बौद्ध भिक्षुओं को जनरलों ने संरक्षण दिया, लेकिन कुछ ही समय बाद ये धार्मिक नेता मर्सिडीज और बेंटले जैसी महंगी कारों में घूमते नजर आने लगे। इसने जनता के मन में एक खराब छवि पेश की।

इस्लाम के खिलाफ घूमा राष्ट्रवादी आंदोलन

म्यांमार में बौद्ध भिक्षुओं का प्रभाव कोई नई चीज नहीं है। इसके डर के चलते ही साल 1962 में पहला तख्तापलट करने के बाद ही सेना ने उनके प्रभाव को नियंत्रित करने की कोशिश की थी। लेकिन यह प्रयास पूरी तरह सफल नहीं रहा। बौद्ध भिक्षुओं के बड़े वर्ग ने छात्रों के साथ मिलकर विरोध प्रदर्शनों को जारी रखा, जिसने 2007 में सैन्य शासन को उखाड़ फेंका। 2001 में विराथु ने लोकतंत्र समर्थक भिक्षुओं के समर्थन में 969 नामक एक नए आंदोलन का नेतृत्व किया। यह नाम इस्लाम में इस्तेमाल होने वाले 786 के जवाब में रखा गया था। विराथु के आंदोलन के चलते रखाइन प्रांत में हिंसा भड़क उठी थी, जिसके बाद 2013 में 969 पर प्रतिबंध लगा दिया। इसके बाद संगठन का बदलाव हुआ और इसे माबाथा नाम दिया गया। म्यांमार में उठ रहे इन राष्ट्रवादी आंदोलनों में बौद्ध धर्म के लिए बाहरी ताकतों से बड़ा खतरा बताया गया, जो पूरी तरह इस्लाम पर था।

भारत के पड़ोसी देशों में हिंदुत्व का असर

दिलचस्प बात ये है कि म्यांमार में पहले जहां भारतीय प्रवासियों के लिए बेहद नफरत भरा रवैया था, इन आंदोलनों ने हिंदुत्व को एक सहयोगी के रूप में देखना शुरू किया। द प्रिंट में लिखे एक लेख में प्रवीण स्वामी ने कहा है कि सिर्फ म्यांमार ही नहीं बल्कि श्रीलंका में भी ये बदलाव देखा गया है। नेपाल के कम्युनिस्ट प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहल प्रचंड के लिए भी हिंदूवादी राजनीति के असर से खुद को नहीं बचा पाए हैं। प्रचंड इन दिनों हाई-प्रोफाइल मंदिरों के दौरे के साथ ही संस्कृत शिक्षा की वकालत कर रहे हैं। पाकिस्तान और बांग्लादेश के इस्लामी आंदोलनों की तरह ये क्षेत्रीय ताकतें एक सभ्यतागत सीमा बनाना चाहती हैं। खास बात ये है कि भारत में इस विचार का समर्थन करने वाला एक वर्ग तैयार हुआ है, लेकिन इसे विदेश नीति का आधार बनाना शायद विनाशकारी साबित होगा। भारत को अपने राष्ट्रीय हितों पर नजर रखने की जरूरत है और म्यांमार के जातीय-धार्मिक एजेंडे से खुद को दूर ही रखना चाहिए।

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