नई दिल्ली: अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी को माइनॉरिटी स्टेटस देने के मामले में 7 जजों की बेंच का फैसला शुक्रवार को आया. हालांकि यह फैसला सर्वसम्मति से नहीं बल्कि 4:3 के अनुपात में आया है. फैसले के पक्ष में सीजेआई, जस्टिस खन्ना, जस्टिस पारदीवाला जस्टिस मनोज मिश्रा एकमत रहे. वहीं जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस दीपांकर दत्ता और जस्टिस एससी शर्मा का फैसला अलग रहा.
AMU के अल्पसंख्यक दर्जे पर बड़ा फैसला: सुप्रीम कोर्ट ने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (AMU) का अल्पसंख्यक का दर्जा फिलहाल बरकरार रखा है, लेकिन साथ में यह भी साफ किया कि एक नई बेंच इसको लेकर गाइडलाइंस बनाएगी. CJI ने अपने फैसले में बताया कि एक 3 सदस्यीय नियमित बेंच अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के अल्पसंख्यक दर्जे पर फाइनल फैसला करेगी. यह बेंच 7 जजों की बेंच के फैसले के निष्कर्षों और मानदंड के आधार पर AMU के अल्पसंख्यक दर्जे के बारे में अंतिम फैसला लेगी.
AMU के अल्पसंख्यक दर्जे पर दूसरी बेंंच करेगी फैसला: नई बेंच अल्पसंख्यक संस्थानों के लिए गाइडलाइंस भी बनाएगी. मसलन अल्पसंख्यक संस्थान को बनाने और उसके प्रशासन से लेकर सारी गाइडलाइन बेंच बनाएगी. 7 जजों के फैसले के आधार पर दूसरी बेंच करेगी सुनवाई. अब ये बेंच तय करेगी कि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी अल्पसंख्यक है नहीं. अभी सुप्रीम कोर्ट ने ये तय नहीं किया है कि AMU अल्पसंख्यक है या नहीं. SC ने मानदंड तय किया है कि अल्पसंख्यक दर्जा किसे दिया जा सकता है.
AMU के लिए राहत क्यों है? 20 अक्टूबर 1967 के एस. अजीज बाशा और अन्य बनाम भारत संघ के फैसले में कोर्ट ने नजीर दी थी कि किसी अल्पसंख्यक संस्थान को अल्पसंख्यक दर्जा तब मिलेगा, जब उसकी स्थापना उस समुदाय के लोगों ने की हो. अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के मामले में तर्क यह था कि चूंकि इसकी स्थापना मुस्लिमों ने नहीं की है और यह कानून के जरिए अस्तित्व में आया, इसलिए यह अल्पसंख्यक संस्थान नहीं है. शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले को खारिज कर दिया.
अल्पसंख्यक संस्थानों को कर सकते हैं रेग्यूलेट: AMU पर सुप्रीम फैसले की बड़ी बातें ये है कि अनुच्छेद-30 में मिले अधिकारों को संपूर्ण नहीं माना जा सकता है. धार्मिक समुदायों को संस्थान बनाने का अधिकार है, धार्मिक समुदायों को संस्थान चलाने का असीमित अधिकार नहीं है. सरकार अल्पसंख्यक संस्थानों को रेग्युलेट कर सकती है. सुप्रीम कोर्ट ने 4-3 से 1967 के उस फैसले को खारिज कर दिया जो एएमयू को अल्पसंख्यक दर्जा देने से इनकार करने का आधार बना था.
कोर्ट के फैसले के मायने, वकील से समझे: इस मामले में जो मानदंड आए है, उसे वकील शादान फराशात ने यूनिवर्सिटी के लिए बडी राहत करार दिया. शादान फराशात ने कहा कि इन मापदड़ों की वजह से आगे हमारा केस पॉजिटिव रहेगा. अजीज बाशा ने ये कहा था कि क्योंकि उस समय 1920 कॉलोनियन लेजिसलेचर ने एएमयू को स्टेबलिश किया, एक्ट बनाकर. इसलिए उसे मुस्लिम माइनोरिटी स्टेबलिश नहीं कर सकते. क्योंकि कानूनी तौर पर इसे कॉलोनियन लेजिसलेचर ने किया है. उस फाइडिंग को पूरी तरह ओवर रूल कर दिया गया.
कोर्ट के फैसले की सबसे जरूरी बात क्या: शादान फराशात ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि लीगल इनकॉरपोरेशन एक चीज होती है और स्टेबलिशमेंट ऑफ इंस्टीट्यूशन अलग मामला है. इस लिहाज से कोई भी मानइनोरिटी कम्यूनिटी एक इंस्टीट्यूट स्थापित कर सकती है. जिसमें कई तरह की अन्य मदद ली जा सकती है पर इसका मतलब ये नहीं कि वो माइनोरिटी इंस्टीट्यूशन उस कम्यूनिटी ने स्टेबलिश ही नहीं किया. यही सुप्रीम कोर्ट के आज के फैसले की सबसे मुख्य बात है. किसने इसे स्थापित किया, किसकी शिक्षा के लिए बनाया गया.उसमें पैसा किस कम्यूनिटी का लगा.इसमें कौन लोग शामिल थे. ये सारी चीजें अगर आप देखेंगे तो साफ दिखता है कि इसे माइनोरिटी को स्टेबलिश करने के लिए दिया गया है.
अल्पसंख्यक दर्जे के लिए क्या जरूरी: सीजेआई ने कहा कि ऐसे विश्वविद्यालय थे जो शिक्षण महाविद्यालय थे और शिक्षण महाविद्यालयों को शिक्षण विश्वविद्यालय में परिवर्तित करने की प्रक्रिया एक शैक्षणिक संस्थान बनाने की प्रक्रिया है. इसलिए इसे इतने संकीर्ण रूप से नहीं देखा जा सकता है. यह नहीं कहा जा सकता है कि कोई संस्थान कानून द्वारा बनाया गया है क्योंकि अधिनियम की प्रस्तावना ऐसा कहती है. मौलिक अधिकारों को वैधानिक भाषा के अधीन बनाया जाएगा और औपचारिकता को वास्तविकता का रास्ता देना होगा. अदालत को संस्थान की उत्पत्ति पर विचार करना होगा और अदालत को यह देखना होगा कि संस्थान की स्थापना के पीछे किसका विवेक था.
बाशा मामले में सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा: अज़ीज़ बाशा मामले में SC ने फैसला सुनाते हुए कहा कि AMU अल्पसंख्यक दर्जे का दावा नहीं कर सकता क्योंकि इसकी स्थापना एक क़ानून द्वारा की गई थी. लेकिन अब 7 जजों के संविधान पीठ ने उस फैसले को रद्द कर दिया. बहुमत के फैसले ने कहा कि कोई संस्थान सिर्फ़ इसलिए अपना अल्पसंख्यक दर्जा नहीं खो देगा क्योंकि उसे क़ानून द्वारा बनाया गया था. बहुमत ने कहा कि न्यायालय को यह जांच करनी चाहिए कि विश्वविद्यालय की स्थापना किसने की और इसके पीछे “दिमाग” किसका था
कैसे कर सकते हैं अल्पसंख्यक दर्जे का दावा: अगर वह जांच अल्पसंख्यक समुदाय की ओर इशारा करता है, तो संस्थान अनुच्छेद 30 के अनुसार अल्पसंख्यक दर्जे का दावा कर सकता है. इस निर्धारण के लिए संविधान पीठ ने मामले को एक नियमित पीठ को सौंप दिया. अब सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि सिर्फ संस्थान की स्थापना ही नहीं बल्कि प्रशासन कौन कर रहा है. यह भी निर्णायक कारक है और इसी आधार पर नियमित बेंच मामले की सुनवाई करेगी.
पीठ ने निर्धारित किए मापदंड: सुप्रीम कोर्ट ने यह निर्धारित नहीं किया कि AMU अल्पसंख्यक संस्थान है या नहीं. लेकिन 3 जजों की पीठ द्वारा विवादास्पद मुद्दे को निर्धारित करने के लिए एक व्यापक परीक्षण के लिए महत्वपूर्ण रूप से मापदंड निर्धारित किए हैं. इसमें इतिहास, स्थापना के लिए परिस्थितियां, निगमन, स्थापना, प्रशासन शामिल है. अजीज बाशा मामले में 5 जजों की पीठ के फैसले को खारिज कर दिया, जिसमें यह माना गया था कि यूनिवर्सिटी को संसद के एक अधिनियम द्वारा, एक क़ानून के माध्यम से निगमित किया गया था. इसलिए यह अल्पसंख्यक संस्थान नहीं है, अब सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि निगमन स्थापना से अलग है. किसी संस्थान का प्रशासन कौन करता है, इस पर भी विचार किया जाना चाहिए.