अब जब बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजे सामने हैं तो आकलन भी सरल है। 15 साल बाद नीतीश कुमार जैसे-तैसे वाली सरकार की स्टियरिंग संभालेंगे।स्टियरिंग का जिक्र जरूरी है।
बैसाखी के सहारे सरकार चलाएंगे ‘छोटे भाई’ नीतीश कुमार, सबसे बड़े नेता बनकर उभरे तेजस्वी
सत्ता की स्टियरिंग नीतीश के पास होगी, इस पर भरोसा कर 2015 में जनता ने जनादेश दिया। तब वो उसी कथित जंगलराज के मुखिया लालू यादव के साथ चुनाव लड़ रहे थे जिसका भय दिखाकर 2020 में वोट मांगा। लेकिन 2020 का जनादेश बताता है कि नीतीश की ड्राइविंग स्किल पर अब जनता को उतना भरोसा नहीं रहा। जनादेश ने साफ कर दिया कि छोटे भाई नीतीश कुमार न सिर्फ बीजेपी की बैसाखी पर बिहार की गाड़ी चलाएंगे बल्कि मुकेश सहनी और जीतनराम मांझी भी उन्हें डिक्टेट करेंगे।
पोल पिच पर बीजेपी ने बैटिंग की और जेडीयू की स्ट्राइक रेट को स्लो कर दिया। पार्टी के नाम पर चिराग ने धारदार बोलिंग की। स्ट्राइक रेट के मामले में जो जेडीयू (JDU) के साथ एनडीए (NDA) में हुआ है, वही हाल कांग्रेस के साथ हुआ है महागठबंधन में। शायद आरजेडी के वोटर्स अपने को कांग्रेस के साथ इतना एलाइन नहीं कर पाए जिसका खामियाजा कांग्रेस को उठाना पड़ रहा है। कांग्रेस 70 सीटों पर चुनाव लड़ रही थी और उनमें से 19 सीटों पर ही जीत हासिल हुई।
बिहार की जो पॉलिटिक्स है वो मल्टीलेटरल से खत्म होकर बाइपोल होने जा रही है। हो सकता है कि अगला जो विधानसभा चुनाव हो उसमें भारतीय जनता पार्टी का सीधा मुकाबला जेडीयू से हो। चुनाव को लेकर दो निष्कर्ष सामने हैं। पहला यह कि तेजस्वी यादव बिहार चुनाव में स्ट्रांग लीडर के रूप में उभर के सामने आए हैं, मैं सिर्फ इस चुनाव की बात कर रहा हूं। अगर सीट वाइज़ देखा जाए, कद के हिसाब से देखें तो निश्चित तौर पर नीतीश कुमार एक जीते हुए गठबंधन के नेता होंगे, उनको शायद एनडीए के विधायक दल का नेता भी चुना जाए और वो सीएम भी बन जाएं लेकिन बड़े नेता के तौर पर मौजूदगी दर्ज कराई है तेजस्वी यादव ने। कहेंगे कैसे..
आज से पांच साल पहले जब तेजस्वी यादव को लालू यादव ने एक तरीके से प्रोजेक्ट करना शुरू किया था, तब एक रैली हुई थी अगस्त 2017 में पटना के गांधी मैदान में, तब वहां पर सीधे तौर पर तेजस्वी ने शंखनाद किया। उस रैली में तेजस्वी यादव में जो एक पॉलिटिकल विट होता है, तंज करना होता है, एक अटैकिंग मोड होता है, उसकी उनमें कहीं न कहीं कमी थी, या यूं कहें वो पॉलिटिक्स में अंडर ग्रेजुएट थे। आज इस चुनाव के बाद हमें ये पता चल रहा है कि वो पोस्ट ग्रेजुएट हो गए हैं। तेजस्वी के लिए अच्छी बात यह है कि वो अभी मात्र 31 साल के ही हैं। उन्होंने कल ही अपना जन्मदिन मनाया है। आने वाले पांच साल के बाद, इस हार के बावजूद वो एक मजूबत स्थिति में होंगे।
पिछले 40 दिन में तेजस्वी ने अपनी तरफ मोड़ा हवा का रुख
जब चुनाव की घोषणा हो रही थी तब ऐसी स्थिति थी कि तेजस्वी यादव, राहुल गांधी चुनाव आयोग के पास गए और कहा कि अभी कोरोना चल रहा है तो इलेक्शन मत कराओ, बाद में करा लेना जब कोरोना ठीक हो जाए। निश्चित तौर पर जो अपने को कमजोर मानता है, वो इस तरह की बातें करता है। एनडीए ने कभी नहीं कहा कि हम चुनाव से भाग रहे हैं। लेकिन पिछले 40 दिन में तेजस्वी यादव ने किस तरह से हवा का रुख अपनी तरफ मोड़ा, नया एजेंडा सामने रखा, यूथ से कनेक्ट करने की कोशिश की, बेरोजगारी को बड़ा मुद्दा बनाया, जातिवाद के दलदल में फंसी बिहार की राजनीति जो एजेंडा विहीन राजनीति है, उसमें एजेंडी की राजनीति जिसकी कल्पना लालू यादव की पार्टी से नहीं करते थे, उसकी शुरुआत तेजस्वी यादव ने की। इसके लिए तेजस्वी यादव ने किसको छाया में रखा- अपने पिता को, मां को, बहन को अपने भाई को। तेजस्वी ने बड़ी रणनीति बनाई- आरजेडी के किसी पोस्टर में लालू यादव, राबड़ी देवी और उनकी बहन नहीं दिखी। जब ये नहीं दिखते थे तो एनडीए के नेताओं को लगता था कि अगर ये होते तो ज्यादा अटैक करने का उनको मौका मिलता। लेकिन तेजस्वी यादव ने जिस तरीके से अपने रणनीतिकारों की टोली बनाई और काम किया, आज की तारीख में इसके लिए तेजस्वी यादव को शाबाशी देनी होगी।